“वायरस प्रोटीन से बना एकअणु यौगिक पदार्थ है जो निर्जीव है।
*पर उसका प्रोटीन ,इंसान के प्रोटीन पर *जीवित* हो जाता है। इसकी मानव के डी एन ए जैसी संरचना है।पर डीएनए केवल केंद्रक में होता है मतलब आधी कोशिका। इसमें 4जीनोम(एटीजीसी) होते हैं।जो अलग अलग म्यूटेशन कर, इसका रूप बदल देते हैं
*जावनर वायरस के साथ *जमीन* पर ही रहते हैं, इसलिये उनके साथ वह भी पड़ा रहता है।
पर इंसान उसके आराम में खलल करता है व सांस नहीं लेने देता है,
प्सास्टिक का कूड़ा जमीन में सड़ा देता है।उससे गरम गैस निकलती है
जो निर्जीव अणु,
बढ़ते तापमान के साथ फटता है वहवा में उड़ता है
व मानव पर चिपक जाता है व म्यूटेशन (वृद्धि)करता है व जीवित हो जाता है।
पकृति सबकी मां है,जो सबके रहने खाने का इंतजाम करती है,पर इंसान उसे ही परेशान करता है।
वो तब भी चुप है।
*जमीन में गरम गैसें व तत्व हैं
- जो ज्वालामुखी बनकर व भूकंप व सुनामी लाते हैं।
उस पर प्लास्टिक का कूड़ा सडा़ते हैं।
*जीवन चाहिए तो सबसे पहले प्लास्टिक बंद करना होगा।
*फिर राख या मिट्टी से सफाई भी करनी होगी।*
*ये कभी न खत्म होने वाला निर्जीव अणु(वि का अणु या विषाणु या वायरस) है।
जो *मिट्टी में चुपचाप* सिस्ट रूप में पड़ा रहता है।
न यह कभी गया न जाएगा। *इसके साथ रहने के लिए हमें
*एसी,फ्रिज, धुंआ करने वाले वाहन के प्रयोग को रोकना होगा,*
जिससे ओजोन पर्त न फटे।
ओजोन पर्त के फटने से पराबैंगनी किरणें सीधे पृथ्वी पर आएंगी व उनषे होने वाली बीमारियां बढ़ जाएंगी।
सब मिलकर प्रदूषण से तापमान बहुत बढ़ जाएगा व
वायरस वापस ,सिस्ट में नहीं जा जाएगा।
तब पृथ्वी भी सांस नहीं ले पाएगी।
खेती भी करनी होगी।
बहुत से देशों में भुखमरी के हालात भी हैं,क्योंकि वो केवल मांसाहार पर निर्भर हैं।
अब यह बहुततेजी से बाहर फैल रहा है,विदेश यात्रा व बाहर से बना भोजन ही इसके वाहक हैं।
*पहले एक माइक्रोबायलाॅजिस्ट ने यह खोज की थी कि *जब वातावरण में बहुतप्रदूषण बढ़ जाएगा,*
तब पृथ्वी सांस नहीं ले पाएगी व उसका एक अणु उसकी रक्षा में किस तरह आएगा,तब क्या हो सकता है,कह नहीं सकते,पर सब नष्ट भी हो सकता है।
अगर प्रदूषण का ग्राफ,ऐसे ही बढ़ता रहा,
धुंए से,प्लास्टिक से,
फिर ओजोन पर्त फटेगी,
फिर ग्लोबल वार्मिंग बढे़गी,
फिर
मिट्टी में दबे,उस निर्जीव अणु के समूह का दम घुटेगा,तो वायरस को रोकना असंभव हो जाएगा।
इससे बचाव केवल प्राकृतिक पेड़पौधे ही कर सकते हैं।
“”मजदूरोंको यह इसीलिये नहीं होता है क्योंकि वो हमेशा प्रकृति के संपर्क में ही रहते हैं।
“#जमीनपरसोना,दिन भर धूप में रहना,उनको प्रकृति की तरह कठोर बना देता है। वायरस उनके व पशु पक्षी वजंतुओं के साथ सिस्ट रूप में पडा़ रहता है व आरामतलब इंसान पर अजनबी महसूस करके,कोशिका के एंडोप्लाज्मिक रेटीकुलम से सीधे केंद्रक में चला जाता है।
वहां क्रोमोसोम्स के ,जींस के, डीएन ए सके समान होता है व फटकर उसमें परिवर्धित(कईगुना बढ़ना ) हो जाता है।इसे म्यूटेशन भी कहते हैं।
अत:प्राकृतिक वस्तुओं का प्रयोग ही बचा सकता है।